धान फसल अवशेष प्रबंधन: चावल / धान, विश्व में मक्के के बाद सबसे अधिक उत्पादित होने वाला अनाज है। भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा चावल उत्पादक देश है। विश्व की लगभग 60 प्रतिशत जनसंख्या अपने दैनिक भोजन जरूरत को पूरा करने के लिए चावल का उपयोग करती है। इसके अतिरिक्त, धान की फसल से मिलने वाले अवशेष, जिसे पराली भी कहा जाता है, का उपयोग पेपर बनाने, मशरूम उत्पादन, कम्पोस्ट तैयार करने, पशुओं के चारे के रूप में, और ईंधन के रूप में भी बड़े पैमाने पर किया जाता है।
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फसल अवशेष किसी पौधे के वो भाग (जैसे: भूसा, तना, डंठल, पत्ते व छिलके इत्यादि) होते हैं, जो फसल की कटाई और गहाई के बाद खेत में छोड़ दिए जाते हैं। फसल अवशेष जलाने में चीन, भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका शीर्ष स्थान पर हैं। भारत देश में इसको सर्वाधिक पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जलाया जाता है। वर्तमान समय में हरियाणा व पंजाब जैसे कृषि की दृष्टि से उन्ननत राज्यों में भी मात्र 10 प्रतिशत किसान ही फसल अवशेषों का उपयुक्त प्रबंधन कर रहे हैं।
तकनीकों के बारे में अनभिज्ञता और कुछ किसानों को जानकारी होने के बावजूद, वे सरलता होने की वजह से अपने फसल के अवशेषों को जला रहे हैं। फसल के अवशेषों का प्रबंधन हमारे देश में सही तरीके से नहीं किया जाता है। इसलिए यह एक महत्वपूर्ण ओर पर्यावरण के लिए गंभीर समस्या बनती जा रही है। इसे यह भी कहा जा सकता है कि इसका उपयोग मृदा में जैविक पदार्थों के रूप में नहीं किया जाता है, बल्कि अधिकांश भाग को जलाकर नष्ट किया जाता है या दूसरे घरेलू कामों में उपयोग किया जाता है। एक अध्ययन के अनुसार, फसल के अवशेषों का केवल 22% इस्तेमाल होता है, और बाकी को जलादिया जाता है। धान की पराली के प्रबंधन के लिए निम्नलिखित उपायों का इस्तेमाल करना चाहिए:
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यह भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा के वैज्ञानिकों द्वारा बनाया गया एक ऐसा छोटा कैप्सूल है, जो फसल अवशेषों को लाभदायक कृषि अपशिष्ट खाद में बदल देता है। एक कैप्सूल की कीमत सिर्पफ 4-5 रुपये है और एक एकड़ खेत के अवशेष को उपयोगी खाद में बदलने के लिए केवल 4 कैप्सूल की आवश्यकता होती है।
पहले, 150 ग्राम पुराना गुड़ मिश्रण तैयार करने और उपयोग करने की विधि: सबसे पहले, 150 ग्राम पुराना गुड़ लें और इसे पानी के साथ उबालें। अब गुड़ उबलते समय जो कोई गंदगी उबल के बाहर आती है, उसे हटा दें। घोल को ठंडा होने दें और फिर इसमें लगभग 5 लीटर पानी मिलाएं। अब इसमें लगभग 50 ग्राम बेसन मिलाएं। इसके बाद, बड़े आकार के प्लास्टिक या मिट्टी के बर्तन को प्राथमिकता दें। अब, 4 कैप्सूल्स लें और उन्हें घोल में अच्छी तरह मिलाएं। इस बर्तन को कम से कम 5 दिनों के लिए गरम स्थान पर रखें। इसके बाद, एक परत पानी के ऊपर जम जाएगी। उस परत को अच्छी तरह से पानी में मिलाएं। इस काम करते समय दस्तानें पहनना और मुंह पर मास्क पहनना न भूलें। पानी में मिलाने के बाद, यह घोल (लगभग 5 लीटर) उपयोग के लिए तैयार है। यह प्रति 10 क्विंटल पुआल को खाद में बदलने के लिए काफी है।
संरक्षित खेती को अपनाकर हैप्पी सीडर द्वारा गेहूं की बुआई करें। इस मशीन में पराली का गठ्ठर अथवा ब्लॉक में भूसे को हार्वेस्ट करने के लिए हार्वेस्टर लगा होता है, जो भूसे को सिड्रिल के आगे से उठाकर छोटे-छोटे टुकड़ों में बदलकर बुआई की गई फसल पर पलवार के रूप में बिछा देता है। ऐसा करने से मृदा में बीज अंकुरण के लिए पर्याप्त मात्रा में नमी संरक्षित रहती है।
कटाई के उपरांत खेत में बचे फसल अवशेष, घास-फूस, पत्तियां व ठूंठ आदि को सड़ाने के लिए 20-25 कि.ग्रा. नाइट्रोजन प्रति हैक्टर की दर से छिड़ककर डिस्क हैरो या रोटावेटर से मिट्टी में मिला देना चाहिए। इस प्रकार अवशेष खेत में विघटित होना प्रारंभ कर देंगे ओर खाद के रूप में खेत की उपजाऊ छमता में बढ़ोतरी करता है।
कटाई उपरांत धान की पराली को पैडी स्ट्रॉचॉपर, सुपर स्ट्रॉ मैनेजमेंट सिस्टम या गट्ठर बनाने वाली मशीन से ब्लॉक या ब्रिक्स बनाकर इसे खेत से हटा सकते हैं। दूसरे कार्यों जैसे-पशुओं के चारे, पेपर बनाने, जैव ईंधन एवं मशरूम उत्पादन, कम्पोस्ट बनाने या ईंधन के तौर पर भी इसका उपयोग कर सकते हैं।
धान की कम अवधि में पकने वाली किस्में जैसे-पीआर 126 (123-125 दिन), पीआर 127 (137 दिन) और पूसा बासमती 1509 (125 दिन) को उगाना चाहिये। ये लंबी अवधि में पकने वाली किस्मों की तुलना में जल्दी पक जाती हैं, जिससे अगली फसल की बुआई और खेत की तैयारी के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है। इसके अलावा इन किस्मों से प्रति एकड़ फसल अवशेष उत्पादन भी लंबी अवधि एवं अधिक बढ़ने वाली किस्मों की अपेक्षा कम होता है। इस प्रकार इनके अवशेष प्रबंधन में ज्यादा परेशानी नहीं होती है।
भारत सरकार फसल अवशेष को जलाने से होने वाले नुकसान एवं पर्यावरण सुरक्षा को ध्यान में रखकर फसल अवशेषों के प्रबंधन के लिए विभिन्न योजनाओं का संचालन कर रही है। इन योजनाओं के अंतर्गत कृषि विज्ञान केन्द्रों, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के संस्थानों, राज्य कृषि संस्थाओं, कृषि विश्वविद्यालयों आदि को सम्मिलित करके किसानों के लिए कृषि मशीनरी उपलब्धता के साथ-साथ उनके मध्य ज्ञान व नई-नई तकनीकों को साझा करना, जागरूकता अभियान चलाना एवं क्षमता विकास के विभिन्न आयाम सुनियोजित करने का काम किया जा रहा है। सीएचसी, निजी उद्यमियों और किसान संगठनों के माध्यम से कृषि मशीनीकरण को बढ़ावा देकर भी किसानों, विशेष रूप से छोटे और सीमांत किसानों को लाभान्वित करने के प्रयास किये जा रहे हैं। किसानों को व्यक्तिगत रूप से भी फसल अवशेष प्रबंधन कृषि यंत्रों पर अनुदान प्रदान किए जा रहे हैं।
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